Wednesday 23 November 2016

क्या हमें शर्म आती है ?

संकोच और शर्म के पर्याय समय के साथ तेजी से बदल रहें हैं, जहां संकोच होना चाहिए वहां हम और अधिक उदार और खुले विचारों के होते जा रहें हैं, पर जहां हमें गर्व होना चाहिए वहां हम डर और संकोच से घिर गये हैं । 
यही तो नई वैश्वीकरण की हकीकत हैं, की हम आज जिध्र भी जाएं अंगरेजी का ही बोल वाला है ,मैं बिलकुल भी अंग्रेजी के खिलाफ नहीं हूँ , हमें हमसबको यह आना ही चाहिए आखिर आज समय की यही मांग है और ये तो सब जानतें हैं की जो समय के साथ नहीं चलता वो मिट जाता है । तो मैं किसके खिलाफ हूँ ?
                                           मेरी लड़ाई उस सैली या कहे तो उस नई प्रचलन से हे जहाँ अंग्रेजी बोलने वाले को स्मार्ट , तेज ,योग्य , पढ़ा लिखा और सलीन मानते हैं और हिंदी या अन्य छेञिये भाषा बोलने वालों को कमजोर , मुर्ख , अयोग्य , अनपढ़ और असभ्य समझतें हैं । क्या आप मुझे बता सकतें हैं की कैसे अंग्रजी का fuck जब तक fuck है आपको कोई इसे कहने या उपयोग करने पर न तो आपको कुछ बोलेगा और न ही आपको असभ्य समझेगा , बल्कि इसके उलट आप तो और कूल कहलायेंगे । आपने इनका प्रयोग खुद ही देखा होगा यहां तक की लड़किंया भी इसका बरा इस्तेमाल करतीं हैं , पर जैसे ही ये अंग्रजी का fuck हिंदी का चोद होता है चीजें कितनी तेजी से बदल जाती है ये आप सोच और देख ही सकतें हैं। हो सकता है आपकी राय कुछ मेरे से भिन हों पर यही इस कॉर्पोरेट युग की सचाइ हो गयी है । आप कहीं अछे जगह जाएँ चाहे वो सिनेमा मल्टीप्लेक्स हो या पांच सितारा होटल अगर आपको अटेंडेंट से हिंदी में बात करने में हिचकिचाहट हो तो समझ जाईये की आप और समाज किस दोराहे पर खड़ा है । 
                                          हम तरक्की कर रहें है, सायद यही आजकल का न्या विकास का मॉडल है हम सब चल परें है, तभी तो आज लोग हिंदी देख कर चकराने भी लगें है । अरे भाई चौकिये मत एकदम सही बात है , अच्छा आप एटीएम तो जरूर इस्तेमाल करतें होंगे तो आप ही सोचिये आपने कितनी ही दफा अंग्रजी की जगह हिंदी को चुना सायद ही २-३ बार वो भी मुश्किल से ही और लो हम्हें तो चाहिए की हमारा लड़का या लड़की तो एकदम संस्कारी और खानदानी हो । क्या आपको शर्म आती है ? सायद अब हम इन सवालों से भी ऊपर उठ गये हैं , ठीक है करते रहिये जो आपको ठीक लगे साला अपना क्या जाता है भाई. 
                                          सायद भाषा ही केवल वो चीज नहीं है जहाँ हम रिवर्स गियर पर चलें गयें हैं हम इस उदारीकरण के दौर मैं खुद को एक जंतु या उपभोग की वस्तु बना बेठे हैं । ऊपर बैठें लोंगों को हमें नचाना या बोले तो कंट्रोल करना आ गया है, क्या आप वो नहीं पहनते जैसा दिखाया जाता है , आप वो मानतें व समझतें हैं जो बताया और दिखाया जाता है ।  क्या आप भिखारी नहीँ बन बैठें हैं ? अगर आपको विस्वास नहीं तो फिर जिओ हो या free लैपटॉप या और ही चुनावी वादों मैं ये free शब्द इतना क्यों आ रहा हैं । आप सायद ये सब पढ़ कर मुझे पागल भी क्र सकतें हैं मेरी ताकत ये ब्लॉग नहीं है मेरी स्वतन्ञ सोच हैं, भगवान करें आप भी थोड़ा खुलके सोचने लगें , सायद अभी भी कुछ हो सकता है मुझे आपके जागने की उमीद है. । 

- अमित अभिषेक 

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